Thursday, October 22, 2009
A jerky ride...
I woke up this morning and got on with life,
So many things to do, in a short-lived day!
Battle on young soldier in self inflicted strife ...
So many victories await me, no time for play!
And I zoomed out into a sea of black smoke,
Waded for an hour, till my destination showed.
Not a sign of fortune, not a lucky stroke,
Made my day easier with the routine work code.
And I headed back in the reverse direction,
Tracing the paths I had tread hours back.
And cut through the engulfing dust and pollution,
Praying the rest of time would cut me some slack.
In just one short glimpse, of friends by the lane,
Good 'ol memories came by to visit a lone ranger.
Of the timeless talks, I engaged in, time and again,
With a friend, who years ago, was less like a stranger.
What times were they ! Every happy moment counted.
Little gifts and hand written messages were a treasure.
No pretentions, no aspirations were ever flaunted.
When smiles flowed freely, genuine, without any pressure.
And in a moment of rude shock I saw I had stopped,
A little too long at a signal, while others whizzed past.
Caught in a still frame, my confidence had dropped,
And weakly I hoped that moment would forever last.
I could feel nothing, no urge lasted, nothing to grope,
No prejudice, no aggression, no fear, no feeling to bind ...
And in that flash, my heart was filled with the hope,
For the oxymorons of our time, an empty thought and a vacant mind!
Saturday, August 22, 2009
The Clock of Life by Robert H Smith
The clock of life is wound but once
And no man has the power
To tell just where the hands will stop,
At late or early hour.
To lose one's wealth is sad indeed,
To lose one's health is more.
To lose one's soul is such a loss
As no man can restore.
The present only is our own.
Live, love, toil with a will.
Place no faith in 'tomorrow'
For the clock may then be still.
Monday, July 13, 2009
Rhyming weed...
Saturday, June 27, 2009
Driftwood
No purpose in life, no cherished dream
Going however the current carries me forth
I love nothing and nothing do I loath
Sometimes I get entangled in a crevice or rock
Trees and bushes my way they block
Always the current pushes me on, and then I'm free
Drifting down for the rendezvous with the sea
Nothing more than clay in a potter's hand
Drifting mid-river, now resting on beach sand
Meeting the sea is destined, so I can't be late
So I'm washed away again by the currents of fate
Along the way, other driftwood I see
To some I cling, from some I flee
Some I love, I wish they would stay
But they all finally, just drift away
So it makes me sad, I'm all alone
Bruised and battered, cold to the bone
But there's the sea, just beyond this slope
The journey's end is my only hope
I've reached the sea, no more struggle and strife
I've reached the end, on the river of life
Show's over folks,now lets wind up fast
Freedom and peace, I'm home at last
-Prem
Saturday, June 13, 2009
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
पुस्तकों में है नहीं
छापी गई इसकी कहानी
हाल इसका ज्ञात होता
है न औरों की जबानी
अनगिनत राही गए
इस राह से उनका पता क्या
पर गए कुछ लोग इस पर
छोड़ पैरों की निशानी
यह निशानी मूक होकर
भी बहुत कुछ बोलती है
खोल इसका अर्थ पंथी
पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
यह बुरा है या कि अच्छा
व्यर्थ दिन इस पर बिताना
अब असंभव छोड़ यह पथ
दूसरे पर पग बढ़ाना
तू इसे अच्छा समझ
यात्रा सरल इससे बनेगी
सोच मत केवल तुझे ही
यह पड़ा मन में बिठाना
हर सफल पंथी यही
विश्वास ले इस पर बढ़ा है
तू इसी पर आज अपने
चित्त का अवधान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
है अनिश्चित किस जगह पर
सरित गिरि गह्वर मिलेंगे
है अनिश्चित किस जगह पर
बाग वन सुंदर मिलेंगे
किस जगह यात्रा खतम हो
जाएगी यह भी अनिश्चित
है अनिश्चित कब सुमन कब
कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छू जाएँगे
मिलेंगे कौन सहसा
आ पड़े कुछ भी रुकेगा
तू न ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले।
Harivansh Rai Bachchan
Saturday, April 25, 2009
परिचय
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं
समाना चाहता है, जो बीन उर में
विकल उस शुन्य की झनंकार हूँ मैं
भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में
सुना है ज्योति का आगार हूँ मैं
जिसे निशि खोजती तारे जलाकर
उसीका कर रहा अभिसार हूँ मैं
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं
कली की पंखुडीं पर ओस-कण में
रंगीले स्वपन का संसार हूँ मैं
मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं
रुंदन अनमोल धन कवि का, इसी से
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का
चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं
पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी
समा जिस्में चुका सौ बार हूँ मैं
न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं
पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं
सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा
स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं
दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार, तू निज को सम्हाले
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं
बंधा तुफान हूँ, चलना मना है
बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं
कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं ।।
शक्ति और क्षमा !
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा
पर नर व्याघ सुयोधन तुमसे, कहो कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो ॠपु-सक्षम, तुम हुये विनीत जितना ही
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल है
उसका क्या जो दंतहीन, विषरहित विनीत सरल है
तीन दिवस तक पंथ मांगते, रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढते रहे छन्द, अनुनय के प्यारे प्यारे
उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नही सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से
सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि, करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता गृहण की, बंधा मूढ़ बन्धन में
सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
संधिवचन सम्पूज्य उसीका, जिसमे शक्ति विजय की
सहनशीलता, क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है !
Saturday, January 10, 2009
I Won't Say A Word by Arden Davidson
There are words I'm not allowed to say.
I really don't know why.
But once when I said one of them,
I made my mother cry.
I'm still not quite sure what it meant.
(It slipped out unexpected).
But my mother told my father,
and for now, I'm not respected.
My father told my neighbor
and my neighbor told his kid.
Now I'm an outcast at my school
and I don't know what I did!
The school told everyone in town,
that bad word that I said.
Now my preacher told my father
that I need help in the head.
I'll never use that word again.
I'll lament and I'll repent.
I only wish I had a clue
what the heck that darn word meant!